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भारत के 5 सबसे रहस्यमय मंदिर _ 5 Most Mysterious Temples In India _ The World's Mystery_transcript

सूर्य मंदिर ओड़ीशा का कोनार्क सूर्य मंदिर 772 साल पुराना है और कई रहस्यों से घिरा हुआ है नदी में कूदकर कारीगर ने दे दी थी जान सात घोड़े और 12 पहियों का क्या है रहस्य ओड़ीशा में स्थित प्रसिद्ध कोणार्क सूर्य मंदिर 772 साल पुराना है बलुआ पत्थर और ग्रेनाइट से बने इस मंदिर को देखने के लिए दुनिया भर से सैलानी आते हैं इस मंदिर का निर्माण इस तरह से किया गया है कि सूर्य की पहली किरण मंदिर के प्रवेश द्वार पर पड़ती है आइए इस मंदिर की मान्यताएं और रहस्य जानते हैं 1250 में बना था कोणार्क सूर्य मंदिर कोणार्क सूर्य मंदिर ओड़ीशा के पुरी में है यह मंदिर भगवान सूर्य को समर्पित है इस मंदिर का निर्माण 1250 ईसवी में गांग वंश राजा नरसिंह देव प्रथम ने कराया था रथ में है सात घोड़े और 12 जोड़ी पहिए इस मंदिर को पूर्व दिशा की ओर ऐसे बनाया गया है कि सूरज की पहली किरण मंदिर के प्रवेश द्वार पर पड़ती है यह मंदिर कलिंग शैली में निर्मित है और इसकी संरचना रथ के आकार की है रथ में कुल 12 जोड़ी पहिए हैं एक पहिए का व्यास करीब 3 मीटर है इन पहियों को धूप घड़ी भी कहते हैं क्योंकि यह वक्त बताने का काम करते हैं इस रथ में सात घोड़े हैं जिनको सप्ताह के सात दिनों का प्रतीक माना जाता है कोनार्क सूर्य मंदिर के प्रवेश द्वार पर दो मूर्तियां हैं जिसमें सिंह के नीचे हाथी है और हाथी के नीचे मानव शरीर है मान्यता है कि इस मंदिर के करीब दो किलोमीटर उत्तर में चंद्रभागा नदी बहती थी जो अब विलुप्त हो गई है ऐसी कहावत है कि इस मंदिर के निर्माण में 1200 कुशल शिल्पिंग किया लेकिन मंदिर का निर्माण कार्य पूरा नहीं हो पाया जिसके बाद मुख्य शिल्पकार का दिशु मोहराना के बेटे धर्म पदा ने निर्माण पूरा किया और मंदिर बनने के बाद उन्होंने चंद्रभागा नदी में कूदकर जान दे दी इस मंदिर का निर्माण बलुआ पत्थर और ग्रेनाइट से हुआ है कोनार्क शब्द दो शब्दों कोण और अर्क से मिलकर बना हुआ है जिसमें अर्क का अर्थ सूर्यदेव है इस मंदिर में भगवान सूर्य रथ पर सवार है यह मंदिर जगन्नाथ पुरी से करीब 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है इस मंदिर को साल 1984 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था मंदिर को लेकर पौराणिक मान्यता पौराणिक मान्यता के अनुसार श्री कृष्ण के पुत्र सांब को श्राप मिलने के कारण कोढ़ रोग हो गया था जिससे निजात पाने के लिए सांब ने मित्र वन में चंद्रभागा नदी के संगम पर कोनार्क में 12 साल तक तपस्या की जिसके बाद सूर्यदेव ने उन्हें इस रोग से मुक्त किया तब उन्होंने इस जगह पर सूर्यदेव व का मंदिर स्थापित करने का निर्णय लिया और नदी में स्नान के दौरान उन्हें सूर्यदेव की एक प्रतिमा मिली ऐसी मान्यता है कि सूर्यदेव की इस प्रतिमा को भगवान विश्वकर्मा ने बनाया था इसी मूर्ति को सां ने इस मंदिर में स्थापित किया कैलाश मंदिर कैलाश मंदिर का रहस्य आज भी इंजीनियरों को चौंकाता है कैलाश मंदिर औरंगाबाद शहर से 30 किलोमीटर दूर स्थित है वास्तुकला को हकीकत में उतार ना बहुत ही मुश्किल है ऐसा ही एक मंदिर स्थित है महाराष्ट्र के औरंगाबाद की एलोरा की गुफाओं में यह मंदिर मात्र एक चट्टान को काटकर और तराश कर बनाया गया है कैलाश मंदिर जिसे बनाने में मात्र 18 वर्षों का समय लगा लेकिन जिस तरीके से यह मंदिर बना है ऐसे में अनुमान यह लगाया जाता है कि इसके निर्माण में लगभग 100 से 150 सालों का समय लगना चाहिए संरचना एवं निर्माण ण का रहस्य ऐतिहासिक रिकॉर्ड्स के अनुसार एलोरा के कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूट वंश के राजा कृष्ण प्रथम के द्वारा सन 756 से सन 773 के दौरान कराया गया मंदिर के निर्माण को लेकर यह मान्यता है कि एक बार राजा गंभीर रूप से बीमार हुए तब रानी ने उनके स्वास्थ्य के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की और यह प्रण लिया कि राजा के स्वस्थ होने पर वह मंदिर का नि माण करवाएंगे और मंदिर के शिखर को देखने तक व्रत धारण करेंगी राजा जब स्वस्थ हुए तो मंदिर के निर्माण के प्रारंभ होने की बारी आई लेकिन रानी को यह बताया गया कि मंदिर के निर्माण में बहुत समय लगेगा ऐसे में व्रत रख पाना मुश्किल है तब रानी ने भगवान शिव से सहायता मांगी कहा जाता है कि इसके बाद उन्हें भूमि अस्त्र प्राप्त हुआ जो पत्थर को भी भाप बना सकता था इसी अस्त्र से मंदिर का निर्माण इतने कम समय में संभव हो सका बाद में इस अस्त्र को भूमि के नीचे छुपा दिया गया भगवान शिव का निवास माने जाने वाले कैलाश पर्वत के आकार की तरह ही इस मंदिर का निर्माण किया गया है आमतौर पर पत्थर से बनने वाले मंदिरों को सामने की ओर से तराशा जाता है लेकिन 90 फुट ऊंचे कैलाश मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसे ऊपर से नीचे की तरफ तराशा गया है कैलाश मंदिर एक ही पत्थर से निर्मित विश्व की सबसे बड़ी संरचना है कुछ अनसुलझे तथ्य मंदिर की दीवारों पर अलग प्रकार की लिपियों का प्रयोग किया गया है जिनके बारे में आज तक कोई कुछ भी नहीं समझ पाया ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेजों के शासनकाल में मंदिर के नीचे स्थित गुफाओं पर शोध कार्य शुरू कराया गया लेकिन वहां हाई रेडियो एक्टिविटी के चलते शोध को बंद करना पड़ा इसके अलावा गुफाओं को भी बंद कर दिया गया जो आज भी बंद ही है ऐसी मान्यता है कि इस रेडियो एक्टिविटी का कारण वही भूमि अस्त्र है जो मंदिर के निर्माण में उपयोग किया गया था जो मंदिर के नीचे छुपा दिए गए थे हालांकि जिस तरीके से कैलाश मंदिर का निर्माण किया गया है पुरातत्त्व विद यह अनुमान लगाते हैं कि इस मंदिर के निर्माण में कम से कम 100 से 150 वर्षों का समय लगना चाहिए लेकिन मंदिर का निर्माण मात्र 18 वर्षों में हुआ यही कारण है कि मंदिर के निर्माण में दैवीय सहायता की भी संभावना जताई जाती है मंदिर से जुड़ी एक और विचित्र बात यह है कि यह भगवान शिव को समर्पित है लेकिन मंदिर में ना तो कोई पुजारी है और ना ही यहां किसी प्रकार की पूजा पाठ की कोई जानकारी मिलती है वीरभद्र मंदिर आंध्र प्रदेश लेपाक्षी हवा में लटके खंभे पर टिका है दुनिया भर में भगवान शिव के कई रहस्यमय मंदिर हैं और हर एक मंदिर से कोई ना कोई रहस्य जुड़ा हुआ है यह मंदिर आंध्र प्रदेश में है और खास बात यह है कि इस विशाल मंदिर का भार मात्र एक खंभे पर है जो हवा में लटका हुआ है यूं तो इस मंदिर में अन्य खंभे भी हैं लेकिन हवा में लटका व एक खंबा अनेकों रहस्य और चमत्कार समेटे हुए हैं आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में भगवान शिव के क्रूर और रौद्र रूप भगवान वीरभद्र विराजमान है इसी कारण से इस मंदिर को वीरभद्र मंदिर भी कहा जाता है यह मंदिर हैंगिंग पिलर टेंपल के नाम से भी अब दुनिया भर में विख्यात हो चुका है इस मंदिर में यूं तो 70 खंभे हैं लेकिन इस मंदिर का आकर्षण केंद्र हवा में लटका वह खंबा है जिस पर मंदिर का पूरा भार आधारित है मंदिर में मौजूद हवा में लटके इस खंबे को आकाश स्तंभ के रूप में माना जाता है यह खंबा जमी न से आधा इंच के करीब ऊपर उठा हुआ है इस मंदिर को लेकर मान्यता है कि हवा में लटके इस खंबे के नीचे से अगर कपड़ा निकाला जाए तो उस व्यक्ति के घर में सुख समृद्धि का वास हमेशा बना रहता है खंबे के हवा में लटकने के पीछे एक कथा भी प्रचलित है माना जाता है कि भगवान वीरभद्र की उत्पत्ति तक्ष प्रजापति के यज्ञ के बाद हुई थी जब महादेव ने माता सती के आत्मदाह के बाद वीरभद्र को अपनी जटा से उत्पन्न कर दक्ष प्रजापति को मारने भेजा था तब दक्ष के वध के बाद भगवान वीरभद्र का क्रोध शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा था पाताल से लेकर आकाश तक उनकी हुंकार से सब भयभीत हो उठे थे तब भगवान शिव ने उन्हें क्रोध शांत करने के लिए तपस्या का आदेश दिया जिसके बाद कहा जाता है कि जहां आज लेपाक्षी मंदिर है उसी स्थान पर वीरभद्र भगवान ने तपस्या की थी और क्रोध पर नियंत्रण पाया था मान्यता है कि इस मंदिर में जो हवा में लटका खंबा है वह भगवान वीरभद्र के क्रोध के कारण ही है भगवान वीरभद्र ने क्रोध रूप में तपस्या आरंभ की थी जिसके बाद उनकी क्रोध की अग्नि के ताप से वह जगह कांपने लगी थी इसी कारण से उस स्थान पर कुछ भी बनाया जाता वह कांपने लगता और मंदिर का निर्माण अधूरा रह जाता ऐसे में रूपना और विरना जो विजयनगर के राजा हुआ करते थे उन्होंने युक्ति लगाई उन्होंने इस मंदिर का निर्माण ऐसे तरीके से कराया जिससे मंदिर का आधार वह स्तंभ हवा में लटकने लगा और मंदिर का निर्माण पूरा हुआ माना जाता है कि जिस दिन यह स्तंभ जमीन को छू गया उस दिन भगवान शिव के वीरभद्र रूप का क्रोध पुनः जाग जाएगा और सृष्टि का विनाश उस दिन निश्चित है बृहदेश्वर मंद आक्रांता हों के द्वारा तोड़े जाने के बावजूद भारत में आज भी वास्तु के अनुसार चमत्कृत कर देने वाले मंदिर स्थित है उन्हीं में से एक है भगवान शिव को समर्पित तंजावुर या तंजौर का बृहदेश्वर मंदिर भारत की मंदिर शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण है तंजावुर स्थित बृहदेश्वर मंदिर इस भव्य मंदिर को सन 1987 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर घोषित किया राजा राज चोल प्रथम ने सन 1004 से 1009 ईसवी के दौरान इस मंदिर का निर्माण कराया था चोल शासकों ने इस मंदिर को राजराजेश्वर नाम दिया था लेकिन तंजौर पर हमला करने वाले मराठा शासकों ने इस मंदिर का नाम बदलकर बृहदेश्वर कर दिया पत्थरों से बना यह अद्भुत और विशाल काय मंदिर है और वास्तुकला का उत्तम प्रतीक है इस मंदिर की रचना और गुंबद की रचना इस प्रकार हुई है कि सूर्य इसके चारों ओर घूम जाता है लेकिन इसके गुंबद की छाया भूमि पर नहीं पड़ती है दोपहर को मंदिर के हर हिस्से की परछाई जमीन पर दिखती है लेकिन गुंबद की नहीं इस मंदिर के गुंबद को करीब 88 टन के एक पत्थर से बनाया गया है और उसके ऊपर एक स्वर्ण कलश रखा हुआ है मतलब इस गुंबद के ऊपर एक 12 फीट का कुंभम रखा गया है इस मंदिर में प्रवेश करते ही 13 फीट ऊंचे शिवलिंग के दर्शन होते हैं शिवलिंग के साथ एक विशाल पंचमुखी सर्प विराजमान है जो फनों से शिवलिंग को छाया प्रदान कर रहा है इसके दोनों तरफ दो मोटी दीवारें हैं जिनमें लगभग 6 फीट की दूरी है बाहरी दीवार पर एक बड़ी आकृति बनी हुई है जिसे विमान कहा जाता है मुख्य विमान को दक्षिण मेरु कहा जाता है आश्चर्य की बात यह है कि यह विशाल काय मंदिर बगैर नींव के खड़ा है बगैर नींव के इस तरह का निर्माण संभव कैसे है भारत को मंदिरों और तीर्थ स्थानों का देश कहा जाता है लेकिन तंजावुर का यह मंदिर हमारी कल्पना से परे है कहते हैं बिना नीव का यह मंदिर भगवान शिव की कृपा के कारण ही अपनी जगह पर अटक खड़ा है इस मंदिर के शिलालेखों को देखना भी अद्भुत है इस मंदिर के चारों ओर सुंदर अक्षरों में नक्काशी द्वारा लिखे गए शिलालेखों की एक लंबी श्रंखला देखी जा सकती है इनमें से प्रत्येक गहने का विस्तार से उल्लेख किया गया है इन शिलालेखों में कुल 23 विभिन्न प्रकार के मोती हीरे और माणिक की 11 किस्में बताई गई हैं रत्नेश्वर मंदिर मणिकर्णिका घाट उत्तर प्रदेश यह मंदिर अटपटे रहस्यों के लिए जाना जाता है क्योंकि सात से 8 फीट वाले इस मंदिर की ऊंचाई अब केवल 6 फीट के करीब ही रह गई सबसे अजीब बात यह कि रत्नेश्वर मंदिर सैकड़ों वर्षों से 9 डिग्री एंगल पर झुका हुआ है अब धीरे-धीरे यह मंदिर झुकता ही चला जा रहा है जिसके बारे में वैज्ञानिक भी पता लगाने में असफल रहे हैं मणिकर्णिका घाट में ऐसा क्या खास है हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार मणिकर्णिका घाट वह स्थान माना जाता है जहां देवी सती की कान की बाली या आंख तब गिरी थी जब भगवान शिव उन्हें हिमालय ले जा रहे थे मण कर्ण का घ रह मंदर में से एक है

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